गंगा और यमुना

Ganga and Yamuna : गंगा और यमुना के लिए पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने हेतु केंद्र की पहल तेज़, जल शक्ति मंत्री सी.आर. पाटिल ने की

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Correspondent: GT Express | 25.07.2025 | Ghar Tak Express |

नई दिल्ली। सतत नदी प्रबंधन और जल संसाधनों के समुचित उपयोग को लेकर केंद्र सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया है। केंद्रीय जल शक्ति मंत्री श्री सी.आर. पाटिल ने गुरुवार को गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह (ई-फ्लो) पर केंद्रित एक उच्चस्तरीय बैठक की अध्यक्षता की। इस बैठक में विभिन्न तकनीकी, प्रशासनिक और वैज्ञानिक निकायों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। मंत्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत की नदियों का पारिस्थितिक स्वास्थ्य बनाए रखना केवल पर्यावरण की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उत्तरदायित्व भी है।

जैव विविधता, मछलियों के प्रवास, जल गुणवत्ता और नदी से जुड़े समाजों की आजीविका पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। इसके लिए उन्होंने एक समावेशी, वैज्ञानिक और क्षेत्र विशेष आधारित कार्य योजना तैयार करने के निर्देश दिए।

बैठक में यमुना नदी की वर्तमान स्थिति पर विशेष ध्यान केंद्रित किया गया। श्री पाटिल ने यमुना में जल प्रवाह की गिरती मात्रा और बढ़ते प्रदूषण पर चिंता जताते हुए  जैसे राज्यों को जल उपयोग की प्राथमिकताओं का पुनः मूल्यांकन करना चाहिए, ताकि यमुना को उसका न्यूनतम जीवनदायी प्रवाह सुनिश्चित हो सके।

बैठक में पर्यावरणीय प्रवाह के आकलन से जुड़े प्रमुख अध्ययनों की समीक्षा भी की गई। एनएमसीजी के तहत विभिन्न नदियों—चंबल, सोन, दामोदर, घाघरा, गोमती, कोसी, महानंदा और गंगा—के लिए IITs और NIH द्वारा किए जा रहे अध्ययनों की अद्यतन स्थिति पर चर्चा की गई। इन अध्ययनों के निष्कर्ष आने वाले महीनों में नदी प्रवाह निर्धारण के वैज्ञानिक आधार को और मजबूत करेंगे।

पर्यावरणीय प्रवाह (ई-फ्लो) उस जल की मात्रा, गुणवत्ता और समय अवधि को दर्शाता है, जो किसी नदी या जलधारा में आवश्यक होता है ताकि उसके पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित रखा जा सके। ई-फ्लो का निर्धारण करते समय मछली प्रजातियों के प्रजनन, प्रवास, नदी किनारे की वनस्पतियाँ, जैव विविधता और स्थानीय समुदायों की निर्भरता को ध्यान में रखा जाता है। जल संसाधनों के उपयोग में संतुलन लाते हुए, यह दृष्टिकोण सतत विकास को भी सुनिश्चित करता है।

हाल के दशकों में नदियों पर मानवीय हस्तक्षेप—जैसे कि बांधों, बैराजों, औद्योगिक जल दोहन और प्रदूषण—ने ई-फ्लो को गंभीर रूप से बाधित किया है। इसके कारण कई नदियाँ सूखने की कगार पर पहुँच गई हैं, जबकि मछली प्रजातियाँ विलुप्त होने लगी हैं। श्री पाटिल ने कहा कि ऐसी समस्याओं का समाधान केवल नियम बनाकर नहीं, बल्कि वास्तविक समय निगरानी, समुदाय सहभागिता और राज्य सरकारों की सक्रिय भूमिका से ही संभव है।

बैठक में श्री पाटिल ने स्पष्ट किया कि ई-फ्लो नीति का सफल कार्यान्वयन तभी संभव है जब उसमें सभी हितधारकों—राज्य सरकारों, वैज्ञानिक संस्थानों, जल उपयोगकर्ताओं, किसानों, नगर निकायों और पर्यावरणविदों—की भागीदारी हो। उन्होंने निर्देश दिया कि प्रत्येक अध्ययन में स्थानीय समुदायों और हितधारकों की राय शामिल की जाए, ताकि वास्तविक जमीनी स्थिति के अनुसार जल प्रवाह निर्धारित किया जा सके।

ई-फ्लो की निगरानी और विश्लेषण में आधुनिक प्रौद्योगिकियों का उपयोग बढ़ाने के लिए भी सुझाव दिए गए। GIS मैपिंग, सैटेलाइट इमेजिंग, जल गुणवत्ता सेंसर और हाइड्रोलॉजिकल मॉडलिंग जैसे उपकरणों का इस्तेमाल कर न केवल डेटा इकट्ठा किया जा सकता है, बल्कि वास्तविक समय में जल प्रवाह का मूल्यांकन भी किया जा सकता है। इससे जल प्रबंधन और नीति निर्माण दोनों ही स्तरों पर पारदर्शिता और प्रभावशीलता सुनिश्चित होती है।

दीर्घकालिक (5-10 वर्ष) कार्य योजनाएँ प्रस्तावित की जाएँगी। श्री पाटिल ने कहा कि यह कार्य योजना नीति निर्माण से लेकर कार्यान्वयन, निगरानी और सुधार तक एक पूर्ण चक्र बनाएगी, जिससे भारतीय नदियों की स्थिति में वास्तविक सुधार हो सकेगा।

पर्यावरणीय प्रवाह (Environmental Flow) या ई-फ्लो से आशय उस न्यूनतम जल प्रवाह से है जो किसी नदी, जलधारा या आर्द्रभूमि में बनाए रखना आवश्यक होता है ताकि उसका पारिस्थितिकीय ढांचा, जैव विविधता, और उससे जुड़ी मानव आजीविकाएँ सुरक्षित रह सकें।

यह जल प्रवाह केवल मात्रा (Quantity) तक सीमित नहीं होता, बल्कि इसमें जल की गुणवत्ता (Quality), मौसमी विविधता (Seasonality) और प्रवाह का समय (Timing) भी सम्मिलित होता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि जल निकासी परियोजनाओं, बांधों, बैराजों या अन्य हस्तक्षेपों के बावजूद नदी की पारिस्थितिकीय अखंडता बनी रहे।

ई-फ्लो नदियों को “नदी” बनाए रखने का विज्ञान है—नदी को केवल जल की एक धारा नहीं, बल्कि एक जीवंत पारिस्थितिक तंत्र माना जाता है, जिसमें वनस्पति, मछलियाँ, पक्षी, सूक्ष्म जीव, जल-जीव, और मानव समुदाय शामिल होते हैं।

एक ऐतिहासिक पहल

भारत सरकार ने वर्ष 2018 में पहली बार गंगा नदी के लिए पर्यावरणीय प्रवाह मानकों को अधिसूचित किया। केंद्रीय जल आयोग (CWC) द्वारा निर्धारित इस नीति के तहत यह तय किया गया कि गंगा की विभिन्न धाराओं—ऊपरी गंगा, मध्य गंगा और निचली गंगा—में साल भर न्यूनतम जल प्रवाह कितना होना चाहिए।

यह नीति इस बात को सुनिश्चित करती है कि ग्रीष्म, वर्षा और शीतकाल—तीनों मौसमों में नदी में एक वैज्ञानिक रूप से निर्धारित न्यूनतम जल प्रवाह बना रहे, जिससे जैविक विविधता, धार्मिक अनुष्ठान, स्थानीय जीवनशैली और नदी की आत्मनिर्भरता अक्षुण्ण रह सके।

यह अधिसूचना देश में नदियों के सतत प्रबंधन की दिशा में एक मील का पत्थर मानी जाती है, और आने वाले वर्षों में अन्य नदियों के लिए भी इसी प्रकार के मानकों की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

प्रमुख ई-फ्लो अध्ययन संस्थान

भारत में विभिन्न शैक्षणिक एवं शोध संस्थान नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह का वैज्ञानिक मूल्यांकन कर रहे हैं। इनके अध्ययन गंगा बेसिन में नीति निर्माण का आधार बन रहे हैं:

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (NIH), रुड़की

अध्ययन नदियाँ: चंबल, सोन, दामोदर

कार्य: प्रवाह डेटा, वर्षा-पैटर्न, भूजल स्तर और मछली प्रजातियों के आधार पर ई-फ्लो मापदंड विकसित करना।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), रुड़की

अध्ययन नदियाँ: घाघरा, गोमती

कार्य: ई-फ्लो का हाइड्रोलॉजिकल और इकोलॉजिकल मॉडल तैयार करना; स्थानीय हितधारकों की भागीदारी सुनिश्चित करना।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), कानपुर

अध्ययन नदियाँ: कोसी, गंगा, महानंदा

कार्य: भू-स्थानिक विश्लेषण, प्रवाह की मौसमी विविधता और मानव प्रभाव के आधार पर ई-फ्लो योजना तैयार करना।

इन अध्ययनों से प्राप्त आंकड़े, नीति निर्माताओं को यह निर्णय लेने में मदद करते हैं कि किस नदी में कब और कितना जल प्रवाहित होना चाहिए ताकि उसका जीवन चक्र बना रहे।

पारिस्थितिक और सामाजिक प्रभाव

जैव विविधता संरक्षण:
न्यूनतम जल प्रवाह से मछलियाँ, कछुए, डॉल्फिन जैसी जलीय प्रजातियों का अस्तित्व बना रहता है। ये प्रजातियाँ नदी के स्वास्थ्य की “बायो-इंडिकेटर” होती हैं।

मछलियों का प्रजनन और प्रवास:
मछलियों की अनेक प्रजातियाँ प्रवास के लिए विशिष्ट जल प्रवाह और तापमान पर निर्भर होती हैं। ई-फ्लो उनके जीवनचक्र को बाधित नहीं होने देता।

जल गुणवत्ता में सुधार:
न्यूनतम प्रवाह बने रहने से जल में ऑक्सीजन की मात्रा संतुलित रहती है और प्रदूषकों का घनत्व कम होता है। यह पेयजल स्रोतों के लिए आवश्यक है।

सामाजिक-आर्थिक स्थिरता:
नदी पर निर्भर समुदायों की आजीविका—जैसे मत्स्यपालन, कृषि और पर्यटन—ई-फ्लो के संरक्षण से सुरक्षित रहती है। साथ ही, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों की पवित्रता भी बनी रहती है।

नदी का आत्म-शुद्धिकरण:
लगातार प्रवाह से नदी की आत्म-शुद्धिकरण क्षमता बनी रहती है, जिससे वह प्रदूषण को प्राकृतिक रूप से नियंत्रित कर सकती है।

Source : PIB

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