जलवायु

नैनीताल में वैश्विक वैज्ञानिकों की बैठक: हिमालय से जलवायु परिवर्तन पर सटीक निगरानी की पुकार

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जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों की वैश्विक चिंता के बीच भारत के उत्तराखंड राज्य के नैनीताल में एक ऐतिहासिक और वैज्ञानिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण बैठक का आयोजन किया गया। यह बैठक 16 से 20 जून 2025 तक आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (ARIES) में आयोजित हुई, जिसमें दुनियाभर से वायुमंडलीय विज्ञान के विशेषज्ञ एकत्र हुए।

इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने ग्रीनहाउस गैसों की निगरानी के लिए हिमालयी क्षेत्रों से प्राप्त एफटीआईआर (Fourier Transform Infrared) तकनीक आधारित अवलोकनों के महत्व पर गहन विचार-विमर्श किया। यह बैठक जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक अध्ययन को नया आयाम देने वाली साबित हुई, क्योंकि इसमें भारत के पर्वतीय क्षेत्रों की जलवायु की निगरानी को एक वैश्विक प्राथमिकता के रूप में प्रस्तुत किया गया।


क्या है इस बैठक का महत्व?

इस सम्मेलन की मेज़बानी विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST), भारत सरकार के अंतर्गत कार्यरत स्वायत्त अनुसंधान संस्था एआरआईईएस (ARIES) ने की। सम्मेलन में तीन वैश्विक वैज्ञानिक नेटवर्कों के प्रतिनिधि शामिल हुए:

  1. NDACC-IRWG – वायुमंडलीय संरचना परिवर्तन का पता लगाने वाला नेटवर्क

  2. TCCON – कुल कार्बन कॉलम अवलोकन नेटवर्क

  3. COCCON – सहयोगी कार्बन कॉलम अवलोकन नेटवर्क

ये तीनों नेटवर्क FTIR तकनीक पर आधारित भू-आधारित अवलोकन प्रणालियों के माध्यम से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), मीथेन (CH₄) और अन्य ग्रीनहाउस गैसों की सटीक मात्रा की जानकारी एकत्र करते हैं।


उद्घाटन में प्रमुख वैज्ञानिकों की भागीदारी

बैठक का उद्घाटन इसरो (ISRO) के पूर्व अध्यक्ष एवं अंतरिक्ष आयोग के सदस्य श्री ए.एस. किरण कुमार ने किया, जो वर्तमान में एआरआईईएस के शासी निकाय के अध्यक्ष भी हैं। अपने उद्घाटन संबोधन में उन्होंने कहा:

“अंतरिक्ष-आधारित सेंसर और भू-आधारित स्टेशनों का समन्वय, ग्रीनहाउस गैसों की निगरानी के लिए अत्यंत आवश्यक है, और हिमालय जैसे क्षेत्रों में यह समन्वय और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।”

उन्होंने यह भी बताया कि अंतरिक्ष-आधारित प्रणाली की सीमाओं को पार करने के लिए एफटीआईआर जैसे तकनीकी समाधान भारत के अनुसंधान ढांचे में शामिल किए जाने चाहिए।


हिमालय की पारिस्थितिकी और वैज्ञानिक चेतावनी

बैठक में एआरआईईएस के निदेशक डॉ. मनीष नाजा ने बताया कि हिमालयी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से एक अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र है। उन्होंने कहा कि:

“इस क्षेत्र में अभी भी पर्याप्त मात्रा में भू-आधारित डेटा उपलब्ध नहीं है, जिससे वैज्ञानिक समझ अधूरी रह जाती है। अंतरिक्ष आधारित उपग्रह हिमालय जैसे ऊबड़-खाबड़ इलाकों में सटीक रीडिंग नहीं दे पाते, इसलिए ज़मीन से लिए गए डेटा विशेष महत्व रखते हैं।”

बेल्जियम के डॉ. महेश शाह ने कहा कि भारत में एफटीआईआर आधारित निगरानी अत्यंत सीमित है और इसे बढ़ाए जाने की ज़रूरत है। उन्होंने सुझाव दिया कि भारत को कई स्थलों पर स्थायी स्टेशन स्थापित करने चाहिए।

वहीं, ऑस्ट्रेलिया से डॉ. निकोलस ड्यूशर, जर्मनी से डॉ. मैथियास फ्रे और अमेरिका से डॉ. जिम हैनिगन, जो क्रमशः TCCON, NDACC और COCCON नेटवर्क के वैश्विक प्रमुख हैं, ने जोर देकर कहा:

“पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों से डाटा का संग्रहण ग्लोबल वार्मिंग के यथार्थ आकलन के लिए अनिवार्य है। अगर हम इन क्षेत्रों से डाटा प्राप्त नहीं करेंगे, तो हमारी वैश्विक जलवायु मॉडलिंग अधूरी रहेगी।”


अंतरराष्ट्रीय भागीदारी और सहयोग

इस बैठक में करीब 70 वैज्ञानिकों और प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिसमें 47 अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ शामिल थे। ये प्रतिभागी बेल्जियम, जापान, स्पेन, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, इथियोपिया, मैक्सिको, स्वीडन जैसे देशों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। यह सम्मेलन हाइब्रिड मोड (ऑनलाइन और ऑफलाइन) में आयोजित हुआ, जिससे अधिक वैज्ञानिकों की सहभागिता संभव हो सकी।


एफटीआईआर तकनीक की उपयोगिता और वैज्ञानिक मूल्य

एफटीआईआर तकनीक वायुमंडलीय गैसों को उनके अवशोषण स्पेक्ट्रा के आधार पर पहचानती है। यह तकनीक ग्रीनहाउस गैसों की अत्यंत सटीक माप करने में सक्षम है और इसे लंबे समय तक चलने वाले निगरानी अभियानों में उपयोग किया जाता है।

इन नेटवर्क्स द्वारा एकत्र डाटा जलवायु मॉडलिंग, मौसम पूर्वानुमान, आपदा चेतावनी, कृषि योजना और जल संसाधन प्रबंधन में अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर भारत इस दिशा में अपने निगरानी नेटवर्क का विस्तार करता है, तो वह जलवायु नीति निर्माण में एक अग्रणी भूमिका निभा सकता है।


भविष्य की दिशा और नीति निर्माण

बैठक के अंतिम सत्र में यह अनुशंसा की गई कि हिमालयी क्षेत्रों में कम-से-कम 10 नए एफटीआईआर स्टेशन स्थापित किए जाएं। साथ ही, सरकार से अपेक्षा की गई कि वह अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क्स से तकनीकी सहयोग और वित्तीय सहायता के लिए समझौते करे।

इस सम्मेलन के माध्यम से नीति निर्माताओं को यह स्पष्ट संकेत दिया गया कि अगर हम जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों को सही ढंग से समझना और उनका समाधान खोजना चाहते हैं, तो हमें हिमालय जैसे अति-संवेदनशील क्षेत्रों से वैज्ञानिक डेटा प्राप्त करने में गंभीरता दिखानी होगी।


निष्कर्ष

नैनीताल में एआरआईईएस द्वारा आयोजित यह सम्मेलन न केवल भारत के लिए वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा, बल्कि वैश्विक जलवायु संवाद की दिशा में भी एक प्रभावशाली कदम था। हिमालय, जो भारत और एशिया के लिए जल, जीवन और जलवायु का स्रोत है, अब वैश्विक विज्ञान का भी केंद्र बनता जा रहा है। आने वाले समय में इस क्षेत्र से प्राप्त वैज्ञानिक डाटा वैश्विक जलवायु निर्णयों और रणनीतियों को दिशा देने में अहम भूमिका निभाएगा।

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